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Ganesh Visputay
[ गणेश विसपुते धन्यवाद मित्रा.]
उदयप्रकाश यांची किंडलमॅगच्या साईटवर अरुण आणि सरला माहेश्वरींनी घेतलेली मुलाखत दिसली.
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हत्याओं की इस श्रृंखला से फासीवाद की पदध्वनि साफ सुनाई दे रही है: उदय प्रकाश
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कन्नड़ लेखक एम. एम. कलबुर्गी की हत्या के प्रतिवाद में हिंदी के रचनाकार उदय प्रकाश ने अपना साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा देने की घोषणा की है। इस घोषणा के चंद दिनों बाद ही उदय प्रकाश कोलकाता आए थे। इस पूरी घटना के संदर्भ में अरुण माहेश्वरी और सरला माहेश्वरी से उनकी कोलकाता में लंबी बातचीत हुई। उस बातचीत को हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं।
अरुण माहेश्वरी: आज की पूरी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को आप देख रहे हैं। जो परिस्थिति है, वह क्रमश: खास तौर पर साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिये असहनीय सी हो रही है। सत्ताधारी पार्टी के नेता जिस जुबान में आम तौर पर बात करते हुए पाए जाते हैं, उसी से पता चलता है कि नीचे समाज में क्या हो रहा है। बुद्धिजीवियों और लेखकों को तो सीधे तौर पर शारिरिक हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है। एम.एम.कलबुर्गी की हत्या को लेकर आपने जिसप्रकार अपना तीव्र प्रतिवाद दर्ज किया है उसका बड़े पैमाने पर रचनाकर्मियों ने स्वागत किया है। उसीसे पता चलता है कि अभी की परिस्थिति पर आम रचनाकर्मियों में कितना गुस्सा है। एकाध व्यक्ति ने इस कदम का मजाक भी उड़ाया है। हमारा आपसे सवाल है कि मौजूदा परिदृश्य की ऐसी कौन सी बातें है, जिनकी वजह से आपने एक इतना बड़ा कदम उठाना जरूरी समझा? हांलाकि सारी दुनिया में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद है। हमें तो लगता है कि जैसे कुछ पुरस्कारों की तो महत्ता ही इस बात में हैं कि उन्हें सही समय में परिस्थितियों की मांग के अनुसार लौटाया जाएं या ठुकराया जाएं। इस बारे में आपका क्या कहना है?
पहली बात तो यह है कि मैंने यह कदम बहुत सोच-समझ कर, इसके राजनीतिक परिणामों को मद्देनजर रखते हुए नहीं उठाया है। पिछले दिनों लगातार जो घटनाएं घट रही है उन्हें आप देख ही रहे हैं। यह सिलसिला लगभग दो सालों से चल रहा है। यू आर अनंतमूर्ति के घर को घेरा गया, उन्हें पाकिस्तान जाने का टिकट भेजा गया, उनपर पत्थर फेंके गये। इसके पहले ए. के. रामानुजन को लीजिए। उन्हें कौन नहीं जानता। ‘थ्री हंड्रेड रामायनाज’ के लेखक। उनके इस लेख को दिल्ली विश्वविद्यालय के एकेडमिक कौंसिल ने भारी बहुमत से पाठ्य पुस्तक से निकालने का निर्णय लिया। ग्यारह लोगों ने उसके खिलाफ मतदान किया। पेनगुइन की तरह का प्रकाशक, जो लेखकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए बाकायदा सभी न्यायिक चुनौतियों का सामना करता रहा है, लेडी चैटरलीज लवर, लोलिता जैसी विवादास्पद किताबों के लिए जिसने लंबी कानूनी लड़ाइयां लड़ी, उन्हें प्रतिबंधित होने से बचाया। उसी पेनगुइन ने दीनानाथ बत्रा नामके एक सनकी आदमी से डर कर, जिसके पास कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं है, वेंडी डोनिगर की ‘एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री ऑफ हिंदुइज्म’ को पल्प कर दिया। मेरी किताब ‘द गर्ल विद द गोल्डेन पैरासोल’ को पल्प आउट कर दिया क्योंकि वह जाति व्यवस्था के खिलाफ थी।
इस प्रकार, कहीं न कहीं यह प्रक्रिया पहले से ही शुरू होगई थी, लेकिन ऐसा नहीं लगता था कि यह प्रक्रिया शारिरिक हिंसा में बदल जायेगी। लेखकों की पिटाई ही नहीं, उनकी हत्याएं होने लगेगी। ये सब हत्याएं एक श्रृंखला में हुई हैं। पहले डाभोलकर, फिर पानसारे और अब कलबुर्गी। ये सब हत्याएं इस बात का भी संकेत देती है कि समस्या सिर्फ हिदुत्व और इस्लाम की नहीं है। खुद हिंदुत्व के अंदर हिंसक झगड़े चल रहे हैं। पाकिस्तान में भी यही हो रहा है। इस पूरे उपमहादेश में इस प्रकार की असहिष्णुता कि कब किसकी भावना आहत हो जाए, पता नहीं चलता है। और किसकी भावनाएं! जो भावनाएं आहत हो रही हैं, वे आहत होने लायक ही हैं। इसके बिना आप एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। जब तक आप इन भावनाओं को आहत नहीं करेंगे, तो जिसे लोकतांत्रिक सहिष्णुता कहते हैं, उसे कभी नहीं ला पायेंगे। यह करना ही पड़ेगा। उनके साथ कानून और व्यवस्था के आधार पर, आईपीसी के आधार पर, न्यायिक व्यवस्था के जरिये भी निपटने की जरूरत है। इनके जरिये उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
सरकार का काम है लेखकों को बचाना। लेखक तो अकेला होता है। बाबाओं, साधुओं को जेड सिक्यूरिटी दी जाती है। ऐसे लोगों की एक पूरी फसल तैयार हो गई है। ये बलात्कार करें, धोखेबाजी करें, इनको कोई नहीं मारता। ये भले अपने अपराधों की वजह से कभी पकड़े गये तो पकड़े गये। लेकिन उनपर सामाजिक तौर पर हिंदू समाज की ओर से कोई आक्रमण नहीं होता। क्या हम यह मान ले कि कलबुर्गी, पानसारे, अनंतमूर्ति से तो उनकी भावनाएं आहत होती है और राधे मां, आशाराम बापू, जो बलात्कार करते हैं, उनसे उनकी भावनाएं आहत नहीं होती है। कई बार मन में यह सवाल पैदा होता है और मन में डर भी लगने लगता है, क्योंकि जब हम देखते हैं कि कहीं कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, कोई हत्यारा पकड़ा नहीं जाता है, न कोई गिरफ्तारी हो रही है।
क्या हम यह मान ले कि कलबुर्गी, पानसारे, अनंतमूर्ति से तो उनकी भावनाएं आहत होती है और राधे मां, आशाराम बापू, जो बलात्कार करते हैं, उनसे उनकी भावनाएं आहत नहीं होती है। कई बार मन में यह सवाल पैदा होता है और मन में डर भी लगने लगता है, क्योंकि जब हम देखते हैं कि कहीं कोई कार्रवाई नहीं हो रही है, कोई हत्यारा पकड़ा नहीं जाता है, न कोई गिरफ्तारी हो रही है।
हम राकेश शर्मा की डाक्यूमेंट्री ‘फाइनल सोल्यूशन’ देखते हैं जिसमें 2002 के गुजरात के जनसंहार का पूरा डाक्यूमेंटेशन है। उसमें सारे अपराधी खुल कर बता रहे हैं कि कैसे उन्होंने कत्लेआम किया। इसका विजुअल डाक्यूमेंटेशन है। बाद में अदालतों में भी वे सब प्रमाणित हुए हैं। बाबू बजरंगी, माया कोडनानी आदि सबको उम्र कैद, फांसी की सजाएं हुई है। फिर भी उनको छोड़ दिया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है! अपराधी छोड़े जा रहे हैं, हत्यारे छोड़े जा रहे हैं और लेखक मारे जा रहे हैं।
सरला माहेश्वरी: प्रतिवाद का कोई स्वर नहीं दिखाई देता। सरकार के किसी कोने से इसके खिलाफ एक आवाज तक नहीं आती!
कलबुर्गी को मेरी ही तरह साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। साहित्य अकादमी जिनको पुरस्कृत करती है, उनके प्रति उसकी जरा भी जवाबदेही नहीं है। कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की ओर से एक छोटा सा शोकसंदेश तक नहीं आया। उनका भी परिवार है, बच्चे हैं। दुख सबको होता हैं। सांत्वना का एक शब्द भी नहीं। किसी रेल दुर्घटना में जब लोग मारे जाते हैं तो खुद रेल मंत्री उन्हें देखने के लिए जाते हैं, मृतकों के प्रति शोक व्यक्त करते हैं, मुआवजों की घोषणा की जाती है। लेकिन साहित्य अकादमी ने क्या किया। एक प्रतिक्रिया तक नहीं। ऐसी असंवेदनशीलता! जब किसी को साहित्य अकादमी अवार्ड दिया जाता है उसे तय करने के लिए एक निर्णायक-मंडल बनता है, ज्यूरी। हर कोई जानता है कि पुरस्कार कैसे दिये जाते हैं। फिर भी एक काल की सर्वोत्कृष्ट मानी जाने वाली कृति को पुरस्कार दिया जाता है। जिसको आपने सम्मानित किया, उन्हीं विचारों की हत्या कर दी जाए और खामोशी से देखते रहें।
इसीलिये मेरे निर्णय के पीछे कोई राजनीति नहीं है। आप जानते हैं मेरी कोई राजनीति नहीं है। मैं किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ा हूं। लेखक तो वैसे ही प्रकृति से स्वतंत्र होता है। उसका समय उससे लिखवाता है। लेकिन दिक्कत यह है कि जो अपने समय को सच्चाई से लिखता है उससे सारी राजनीतिक सत्ताएं नाराज ही रहती है। इन्हीं तमाम कारणों से मुझे लगा कि इस पुरस्कार को लौटा दिया जाना चाहिए।
इसीलिये मेरे निर्णय के पीछे कोई राजनीति नहीं है। आप जानते हैं मेरी कोई राजनीति नहीं है। मैं किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ा हूं। लेखक तो वैसे ही प्रकृति से स्वतंत्र होता है। उसका समय उससे लिखवाता है। लेकिन दिक्कत यह है कि जो अपने समय को सच्चाई से लिखता है उससे सारी राजनीतिक सत्ताएं नाराज ही रहती है। इन्हीं तमाम कारणों से मुझे लगा कि इस पुरस्कार को लौटा दिया जाना चाहिए।
अरुण माहेश्वरी: बिल्कुल सही कहा आपने। हाल में फ्रांस की सरकार ने वहां के अर्थशास्त्री थामस पिकेटी को नोबेलजयी अर्थशास्त्री के साथ ही फ्रांस के सर्वोच्च पुरस्कार से नवाजने की कोशिश की थी तो पिकेटी ने यह कह कर उस सम्मान को स्वीकारने से इंकार कर दिया कि सरकार का काम यह तय करना नहीं है कि समाज में कौन सम्मानित होगा और कौन नहीं। सरकार का काम है अर्थ-व्यवस्था को सुधारना और यदि आप अर्थ-व्यवस्था को संभालने में विफल होते हैं तो मेरे लिये आपका कोई महत्व नहीं है। जो सरकार अपने नागरिकों को, लेखकों और साहित्यकारों को न्यूनतम सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती उस सरकार के दिये किसी भी सम्मान का कोई मूल्य नहीं है। और, मेरे अनुसार तो ऐसे पुरस्कारों को सही समय पर लौटाना ही अपनी प्रतिवाद के दर्ज कराने का एक सही तरीका है।
हां, कुछ लोग टाइमिंग की बात उठाते हैं। टाइमिंग का क्या। वह तो कभी भी हो सकती है। अभी शायद यह एक ऐसा समय था जब परिस्थिति सबसे ज्यादा सघन, इंटेन्सीफाई हो गयी है। यह फासिज्म की ओर बढ़ने के लक्षण है। अभी-अभी मैं म्यूनिख से लौटा हूं। मैंने वहां वो संग्रहालय देखा है जिससे पता चलता है फासिज्म कैसे पैदा हुआ। जब कारपोरेट, मीडिया, मोनोलॉग अर्थात रेह्टोरिक एक हो जाते हैं तभी फासिज्म आता है। और इस समय यहां सब एक हो रहे हैं। रिलीजन, कारपोरेट और कारपोरेट से शक्ति प्राप्त मीडिया इन सबने एक उन्माद पैदा किया। एक प्रकार का राष्ट्रवादी उन्माद।
आज ही मेरे फेसबुक वाल पर किसी और ने लिख दिया कि हिंदी एक कृत्रिम भाषा है। उसपर तत्काल एक कमेंट आया—जो हिंदी को कृत्रिम भाषा कहता है वह भारतीय, नस्ल का ही नहीं है। अब इन्होंने एक और नई नस्ल भी पैदा कर ली है। इंडियन रेस। क्या कभी आपने ऐसी कोई नस्ल के बारे में सुना है। दुनिया में कोई ऐसी किसी नस्ल की बात नहीं करता, कोई पुरातात्विक नहीं कहता। हर कोई जानता रेसेस के बारे में। मोंगोलाइट्स, प्रोटो आस्ट्रोलाइट्स, नाइजेरिस्ट, द्रविड़, आर्य सुनते आए हैं। इनके बीच सदियों में लगातार इंटरेक्शन होता रहा है। जेनेटिक अध्ययन बताते हैं कि 87 प्रतिशत तक का जेनेटिक इंटरेक्शन हो चुका है। और ये शुद्ध नस्ल का दावा करते हैं। हमारा डीएनए, पाकिस्तान में रहने वालों, हड़प्पा सम्यता के लोगों का डीएनए एक है।
सरला माहेश्वरी: इस विषय पर मुकेश कुमार की एक कविता याद आ रही है। ‘हां, हरामजादे हैं।’ वे कहते हैं:
पुरखों की कसम खाकर कहता हूं
कि हम सब हरामजादे हैं
आर्य, शक, हूण, मंगोल, मुगल, अंग्रेज,
द्रविड़, आदिवासी, गिरिजन, सुर-असुर
जाने किस-किस का रक्त
प्रवाहित हो रहा है हमारी शिराओं में
उसी मिश्रित रक्त से संचरित है हमारी काया
हां हम सब वर्णसंकर हैं।
सचमुच, भारत के मुसलमान, ईसाई सब एक ही नस्ल के हैं।
शमशेर सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल सम्मान। लेकिन हालत यह है कि केदारनाथ अग्रवाल के घर को बिकने से नहीं बचाया जा सका। वह तहस-नहस होगया था। दुष्यंत स्मृति सम्मान अढ़ाई लाख का पुरस्कार है। अभी दुष्यंत के घर को बड़ी मुश्किल से बचाना संभव हुआ है। सचमुच यह सवाल है कि ये कौन लोग हैं, पुरस्कार देने वाले।
अरुण माहेश्वरी: यह सही है। लेकिन हिंदी की एक और खास स्थिति है। हिंदी में अभी पुरस्कारों की बाढ़ आई हुई है। ‘वागर्थ’ जैसी पत्रिकाओं को हम देखते हैं तो उसमें लिखने वाला शायद ही कोई ऐसा लेखक होगा जो अपने सिर पर चार-पांच पुरस्कारों की कलंगी न लगाए हुए हो। इस तुलना में हिंदी साहित्य समाज में बेहद अप्रासंगिक सा दिखाई देता है। सवाल उठता है कि तब वे कौन लोग है जो ये सारे पुरस्कार दे रहे हैं? अगर समाज में लेखकों का सचमुच मान होता तो साहित्य की बिक्री की यह दशा नहीं होती। लेखक की तो कोई पहचान नहीं है, और उसे नाना पुरस्कारों से लाद दिया जा रहा है!
यह एक बहुत दुखदायी स्थिति है। यह सारा उपक्रम बेहद अवमाननापूर्ण है। मैंने एक कमेंट किया था कि साल में 365 दिन होते हैं और इन 365 दिनों में रोज के हिसाब से दस-दस पुरस्कार दिये जा रहे हैं। हजारों पुरस्कार! इनके शुरू में पुरस्कार किसी न किसी बड़े साहित्यकार के नाम पर दिये जाते थे। प्रतिष्ठित और प्रगतिशील साहित्यकारों के नाम पर। शमशेर सम्मान, केदारनाथ अग्रवाल सम्मान। लेकिन हालत यह है कि केदारनाथ अग्रवाल के घर को बिकने से नहीं बचाया जा सका। वह तहस-नहस होगया था। दुष्यंत स्मृति सम्मान अढ़ाई लाख का पुरस्कार है। अभी दुष्यंत के घर को बड़ी मुश्किल से बचाना संभव हुआ है। सचमुच यह सवाल है कि ये कौन लोग हैं, पुरस्कार देने वाले। प्रेमचंद के लमही की स्थिति से आप अच्छी तरह वाकिफ हैं। गालिब की मजार को किसी तरह से हल्ला-गुल्ला करके उसका पुनरुद्धार किया जा सका है। शर्मनाक है कि इन लोगों के नाम से सम्मान देना और खुद ही सम्मानित हो जाना। यह एक प्रकार का ‘शामिल बैंडबाजा’ है। एक-दूसरे को सम्मानित करेंगे। समीक्षाएं मैनुफैक्चर्ड होगी। आप उनको पढ़ कर देखिये, वे किसी लायक नहीं होती।
सरला माहेश्वरी: वो मुक्तिबोध की कविता है ना:
सफलता की आंख से
दुनिया को निहारती फैली है
पूनो की चांदनी . . .
मनुष्य के लिए नहीं फैली यह
सफलता की, भद्रता की,
कीर्ति-यश-रेशम की पूनो की चांदनी
मुझको डर लगता है,
मैं भी तो सफलता के चन्द्र की छाया में
घुग्घू या सियार या
भूत नहीं कहीं बन जाऊं!
अरुण माहेश्वरी: संपादक अक्सर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि हमें तो लेखक लोग समीक्षाएं भिजवाते हैं, तभी वे छपती है। अपनी ओर से समीक्षाएं लिखवाने का हमारे पास कोई तरीका नहीं है। कहने का मतलब यह है कि इस पूरे परिदृश्य में कहीं न कहीं हिंदी के नाम पर चलने वाली जो असंख्य संस्थाएं हैं, और उनमें बैठे हुए लोग है, वे सब इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। हिंदी के नाम पर भारत सरकार और विभिन्न सरकारों की ओर से अरबों रुपये खर्च किये जाते हैं, क्या यह कोरी बंदरबांट नहीं है?
नहीं, इसे मुहावरों की भाषा में कहना विषय को हल्का करना होगा। यह सरासर लूट है। इसे शुद्ध फिनेंशियल टम्र्स में देखा जाना चाहिए। हजारों, लाखों करोड़ के जो इतने सारे स्कैम्स हो रहे हैं, यह भी एक स्कैम हैं। इसी दृष्टि से इसे देखा जाना चाहिए। भाषा का उद्योग, खास तौर पर हिंदी भाषा का, उसके जेनेसिस में आप जायेंगे तो पता चलेगा कि किस प्रकार 19वीं सदी से ही, मध्यकाल से सुनियोजित ढंग से हिंदी को एक धर्म के साथ जोड़ने की कोशिश चल रही है। और यह बढ़ते-बढ़ते अब यह यहां तक चला गया है कि इसे जाति विशेष के साथ जोड़ दिया जा रहा है। Identified with certain castes. इस बीच जब वी पी सिंह ने मंडल आयोग को लागू किया तो ’90 के बाद आरक्षण में एक नया पहलू जुड़ गया। आरक्षण की मांग और जातियां भी करने लगी। ऐसी स्थिति में अब पहले की तरह सिर्फ एक ही जाति के लोगों की नियुक्ति नहीं हो सकती है। तो इससे एक नई चुनौती पैदा हुई है। मैंने जब ‘पीली छतरी वाली लड़की’ लिखा, वह दरअसल एक प्रकार का भाषा विमर्श ही था। हिंदी विभाग में आकर वह कैप्सूल्ड हुआ था, जहां वह प्रेमकथा चल रही थी। जैसा कि एंगेल्स ने कहा हैं, “Language is the practical consciousness of man.” यह हमारी व्यवहारिक चेतना है। तो आप इसे जितना सब्जूगेट करेंगे, गुलाम बनायेंगे, मैनुपुलेट करेंगे, उतना ही चेतना पर उसका असर आयेगा। आप सोचिये, इस भाषा में हमारी सदियां गुजर गई है। इसमें तरह-तरह की धारणाएं, मिथ आदि भरे गए हैं। आज तक बहुत बड़ा समुदाय उन्हें अपनाए हुए हैं। प्रवचनकारी बाबाओं की जो जमात है, वे जो भाषण देते हैं, वह और क्या है, भाषा का ही तो खेल है। इन प्रवचनकारियों का एक और लक्ष्य होता है ब्लैक मनि को व्हाइट करना। ये कोलोनाइज करते हैं, भू-माफियाओं की तरह काम करते हैं। यह एक पूरा उद्योग है।
फिर टेलिविजन आ गया। उत्तर आधुनिकता ने हमें यह तो बताया ही है कि आगे स्पीच-सेन्ट्रिक एज होगा। वाक्-केन्द्रित सभ्यता। और सबसे ज्याद निवेश भाषा पर ही होगा। तो भाषा कोई मामूली चीज नहीं है। आप तो बहुत पढ़ते हैं। अंबर्तो इको ने ही अपने ट्रैवल इन हाइपरियल्टीज में कहा है कि कोई भी समाज में कौन सा वर्ग भाषा को कितना शेयर करता है, उससे समाज में उस समुदाय की स्थिति का पता चलता है। जैसे साहित्यकार होता है। आप याद करें विक्टर ह्यूगो का समय। उस समय लेखक आथोरिटी था। उनके उपन्यास धारावाहिक प्रकाशित होते थे और हर परिवार में उसके पाठक होते थे। उसके चरित्रों पर बहस होती थी, अगले दिन क्या होगा, इसके भी कयास लगाये जाते थे। ऑथर की भाषा पर आथोरिटी थी। इसी से ऑथर शब्द बना। आज उसकी यह ऑथोरिटी छीन ली गई है। अब नेतागण भाषण-प्रवचन देते रहते हैं, बाबाओं ने भाषा पर कब्जा जमा रखा है।
भाषा का उद्योग, खास तौर पर हिंदी भाषा का, उसके जेनेसिस में आप जायेंगे तो पता चलेगा कि किस प्रकार 19वीं सदी से ही, मध्यकाल से सुनियोजित ढंग से हिंदी को एक धर्म के साथ जोड़ने की कोशिश चल रही है। और यह बढ़ते-बढ़ते अब यह यहां तक चला गया है कि इसे जाति विशेष के साथ जोड़ दिया जा रहा है। Identified with certain castes.
दरअसल, साहित्यकार के लिए भाषा उसकी आजीविका है। वह उसी में जीता है, मरता है, सांस लेता है, उसी में रहता है। आज उसकी स्थिति क्या है। क्रिकेट में देखिये, किसी ने जरा सा बल्ला चला दिया, उसके लिये दुनिया के सारे विशेषण, महानता और नायकत्व की सारी बातें कही जाने लगती है। अब टैगोर बनाना असंभव है। अब किसी साहित्यकार को कभी भारत-रत्न नहीं मिल सकता। क्रिकेटर को मिल सकता है, बॉलीवुड के एक्टर को मिल सकता है। व्यवसायी को तो यह सब मिलता ही है। लेकिन साहित्यकार को देखिये। उसकी स्थिति कमजोर होती जा रही है। दरअसल, वह भाषा को बहुत कम शेयर कर पाता है। भाषा के प्रमुख शेयरहोल्डर्स अब दूसरे लोग हो गये हैं। मेरी नजर में हिंदी के साहित्यकार के पास एक प्रतिशत भी भाषा नहीं बची है। मोदी से ज्यादा भाषा पर कौन कब्जा जमाए हुए हैं। विज्ञापनों को देखिए, टीवी एंकर्स को देखिए, क्रिकेट को देखिए। ग्लैमर वल्र्ड, क्राइम इन्फारमेशन – भाषा पर इन अन्यों का कब्जा है। तो साहित्यकार कहां बचेगा।
मेरे गुरू ताद्युश रोज़ेविच की कविताओं का एक संकलन है, 2007 में आया था, उसका शीर्षक है ‘वर्ड्स’—शब्द। उसमें सारी कविताएं शब्द पर है। एक कविता मुझे याद आती है, जिसकी थीम है कि शब्द जो है वे राजनीतिज्ञों के दांतों को चमकाने और कुल्ला करने के काम आते हैं। शब्द जो है खूबसूरत होठों में जो च्विंगम चबा रहे हैं, उसके बैलून बनाने का काम कर रहे हैं। और वह कहता है, शब्द कन्टेमिनेट हो रहे हैं, शब्द खत्म हो रहे हैं, जो अखबारों की रद्दी के टुकड़ों की तरह फेंक दिये गये हैं, सड़ रहे हैं। ये शब्द वही थे जिन्हें हम देते थे उसे जिससे बहुत गहराई से प्यार करते हैं। शब्द वे थे जो हमारे घावों पर मलहम का काम किया करते थे। लेकिन फिर वे अंत में कहते हैं – शब्द में अब भी शक्ति है। किसी बम की तरह वे कभी भी विस्फोट कर सकते हैं।
उनकी कविताएं कुछ इस प्रकार है: एक कविता है ‘मैं क्यों लिखता हूं’।
कभी-कभी ‘जीवन’ उसे छिपाता है
जो जीवन से ज़्यादा बड़ा है
कभी-कभी पहाड़ उस सबको छुपाते हैं
जो पहाडों के पार है
इसीलिए पहाडों को खिसकाया जाना चाहिए
लेकिन पहाडों को खिसकाने लायक
न तो मेरे पास तकनीकी साधन हैं
न ताकत
न भरोसा
इसलिए मैं जानता हूँ कि आप उन्हें इसी जगह देखते रहेंगे
और यही वजह है कि
मैं लिखता हूँ ।
एक कविता है ‘सफेद’।
सफ़ेद न तो उदास है
न प्रसन्न
बस सफ़ेद है
मैं लगातार कहता रहता हूँ
यह सफ़ेद है
लेकिन सफ़ेद सुनता नहीं
वह अंधा है
और बहरा है
वह बिल्कुल मुकम्मल है
धीरे-धीरे
वह और सफ़ेद होता जाता है ।
‘शब्द’ कविता का पूरा पाठ कुछ इस प्रकार है:
शब्दों का इस्तेमाल किया जा चुका है
चुइंगम की तरह उन्हें चबाया जा चुका है
सुन्दर जवान होठों द्वारा
सफ़ेद फुग्गों बुल्लों में बदला जा चुका है
राजनीतिकों द्वारा घिसे-रगड़े गए
उनका इस्तेमाल दांत चमकाने और मुँह की सफाई के लिए
कुल्ले-गरारे में किया गया
मेरे बचपन के दिनों में
शब्दों को मरहम की तरह
घावों पर लगाया जा सकता था
शब्द दिए जा सकते थे उसे
जिसे तुम प्यार करते थे
घिसे-बुझे
अखबार मे लिपटे
शब्द अभी भी संक्रामक हैं . . .
अभी भी उनसे भाप उठती है
अभी तक उनमे गंध है
वे अभी भी चोट पहुँचाते हैं
माथे के भीतर छुपे हुए
छुपे हुए हृदय के भीतर
छुपे हुए सुन्दर जवान लड़कियों के कपडों के अन्दर
पवित्र पुस्तकों में छुपे हुए
वे अचानक फूट पड़ते हैं
और मार डालते हैं।
यही एक विश्वास है शब्दों के प्रति, जो हम लोगों में बचा हुआ है। वर्ना शब्दों की जो तबाही हो रही है, हम देख ही रहे हैं। महान शब्द को देखिये। कितना दुरुपयोग होता है इसका। हर कोई महान होता है। कोई एक लूट-लाट कर बिजनेस खड़ा कर लेता है और जेल चला जाता है, वह भी महान होता है। यह जो पूरी इकॉनमी है, पूंजी की भूमिका, incoming technology, इसने सिर्फ दुनिया को नहीं बदला है, पूरी भाषा को छिन्न-भिन्न कर दिया है। क्षतिग्रस्त किया है।
अब टैगोर बनाना असंभव है। अब किसी साहित्यकार को कभी भारत-रत्न नहीं मिल सकता। क्रिकेटर को मिल सकता है, बॉलीवुड के एक्टर को मिल सकता है। व्यवसायी को तो यह सब मिलता ही है। लेकिन साहित्यकार को देखिये। उसकी स्थिति कमजोर होती जा रही है। दरअसल, वह भाषा को बहुत कम शेयर कर पाता है। भाषा के प्रमुख शेयरहोल्डर्स अब दूसरे लोग हो गये हैं।
मुझे जो साहित्य अकादमी का अवार्ड दिया गया, कलबुर्गी को दिया गया, पता नहीं आज तक किन-किन को दिया गया। आप पायेंगे कि सब कहीं न कहीं कुछ रखते हैं। इस बारे में अरुंधती राय के उस वक्तव्य को पढ़ा जाना चाहिए जो उन्होंने साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराते हुए दिया था।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ उद्योग विभाग ही भ्रष्ट होता है, या वित्त विभाग या निजी पूंजीपति ही भ्रष्ट होते हैं। ये साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, ये किसी से कम भ्रष्ट है क्या?
हंटिंगटन ने, जिसने Clash of Civilizations लिखा था, उसने कहा था कि आने वाले समय में सबसे ज्यादा खर्च संस्किृति पर होगा। संस्कृति अभी केंद्र में है। इतिहास से लेकर संस्कृति के जो तमाम रूप है, पुरानी भाषा का इस्तेमाल करें तो जो अधिरचना की चीजें हैं, सबसे ज्याद हमले उन्हीं पर हो रहे हैं। यह एक आपातकाल, Dark Age है। और जो लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं, वे उदयप्रकाश और पता नहीं किस-किस टम्र्स में सोच रहे हैं। यह बिल्कुल गलत है, भले उनमें लेफ्ट ही क्यों न हो। ऐसा बिल्कुल नहीं है।
अरुण माहेश्वरी: अभी जो विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल में चल रहा है और जिसमें छत पर चढ़ कर चिल्ला-चिल्ल कर कहा जा रहा है कि हिंदी बाजार को जीतेगी। नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि दुनिया में सिर्फ तीन भाषाएं बचेगी, अंग्रेजी, चीनी और हिंदी। यह जो अवधारणा है कि भाषा बाजार के जरिये बचेगी, कायम रहेगी, इसपर आपका क्या विचार है। हमारे अनुसार तो भाषा बाजार से जीवित नहीं रह सकती। बाजार सच कहा जाए तो भाषा के नाश की जगह है। शेयर बाजार, फाटका बाजार में तो सब कुछ इशारों पर होता है। अभी तो बाजार की भाषा एप्स है। क्या ऐसा नहीं है कि जो हिंदी की बाजार पर विजय का उन्माद पैदा कर रहे हैं, वे प्रकारांतर से यह कह रहे हैं कि दुनिया के बाजार पर हिंदी वालों का वर्चस्व होगा। आज मुकेश अंबानी या कोई भी अन्य अगर अपना वाणिज्य फैलाता है तो वह हिंदी की सेवा नहीं करेगा। क्या यह भाषा के जरिये भी एक प्रकार के अंधराष्ट्रवाद को हवा देने की कोशिश नहीं है?
अरुण जी, देखिये, आज बाजार यदि कोई है तो वह ग्लोबल बाजार है। किसी देश का निजी बाजार नहीं बचा है। कोई अगर यह कहे कि यह अपना, स्वदेशी बाजार है, खादी ग्रामोद्योग की तरह का, तो यह कोरा धोखा है। सबकुछ ग्लोबल है। यह माना जाता है कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। यूरोप की पूरी आबादी से बड़ा। अब इस बाजार में जिस हिंदी की बात की जा रही है, वह तो है ही नहीं। ग्लोबल मार्केट की भाषा अभी अंग्रेजी है। चाइनीज भी नहीं है। आप पता कीजिए, चीन में, फ्रांस में, जर्मनी में भी, सब जगह इंग्लिश-स्पीकिंग के कोर्स जोरों पर चल रहे हैं। तो बाजार की भाषा तो अंग्रेजी ही है।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ उद्योग विभाग ही भ्रष्ट होता है, या वित्त विभाग या निजी पूंजीपति ही भ्रष्ट होते हैं। ये साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाएं, ये किसी से कम भ्रष्ट है क्या ?
मोदी जी जो कहते हैं कि मैंने चाय बेचते-बेचते यूपी के भैयों से हिंदी सीखी, तो यूपी के लोगों की हिंदी में ही पिछले दस सालों में जो परिवर्तन हुए है, इसका किसी को अंदाज है। अभी कुछ साल पहले से ही प्रभु जोशी ने हिंदी के क्रेयोलीकरण का सवाल उठाना शुरू किया है। हिंदी की वोकबलरी में, शब्द भंडार में, हिंदी के मूल शब्द कितने बचे हुए हैं? आप ही देखिये चौरासी वैष्णवन की वार्ता की भाषा, लाला श्रीनिवास दास की परीक्षा गुरू या सुदर्शन की कहानियों की भाषा। कामायनी को ही याद कीजिए। और फिर आज की भाषा को देखिए। अखबारों की हेडलाइन्स, दैनन्दिन व्यवहार की भाषा। आपने एप्स की चर्चा की। एप्स ही क्यों, एसएमएस, इंटरनेट, मोबाइल, उनसे जो भाषा बन रही है, इनके जरिये हमारे शब्द भंडार में ऐसे शब्द आरहे हैं जो पूरी तरह से एलियन शब्द है। जो कभी नहीं थे और स्थिति यह है कि उन्हें कभी हटाया या बदला भी नहीं जा सकता है। पहले जैसे हम पैंट को पतलून कर लेते थे, प्लेटो को अफलातून या सोक्रेटीज को सुकरात बना लेते थे, अपने ढांचे में, अपनी मिट्टी में उनको गढ़ने, बनाने, उन्हें नया कलेवर देने की जो कोशिश रहती थी, अब तो वैसी कोई इच्छा शक्ति भी नहीं बची है। मोबाइल रिचार्ज अब मोबाइल रिचार्ज ही रहेगा। दिल मांगे मोर। यह जो परिवर्तन हो रहे हैं, होते चले जा रहे हैं, मोदी किस हिंदी की बात कह रहे हैं। बाजार में जो हिंदी बची रहेगी, वह कैसी हिंदी होगी? क्या वह राजभाषा वाली हिंदी होगी? या ऐसी बाजार वाली?
और वैसे कहा जाए तो हिंदी बनी ही है बाजार के लिए, एक संपर्क भाषा के तौर पर। साहित्य की भाषा, सृजनात्मकता की भाषा हिंदी थी ही नहीं। ब्रज भाषा, अवधि, और दूसरी भाषाएं थी। अब मार्केट के लिए आपने एक भाषा बनाई। संपर्क के लिए। और फिर धीरे-धीरे, बड़ी चतुराई से उसमें संस्कृत के शब्दों को लाकर इसके शब्द भंडार को एक पवित्र सा रूप दे दिया। बहुत सारे लोग तो आज भी उसमें अपनी अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं। उनके लिए यह असंभव सी है। नाजिम हिकमत कहते हैं न कि जब मैं टर्किस में लिखना चाहता हूं इंकलाब, तो उसका अर्थ निकलता है जेहाद। इसप्रकार, जो शब्द आते हैं, वे अपने साथ पूरी अर्थ-स्मृति लेकर आते हैं।
आपने पाली को छोड़ा, बौद्ध बाहर चले गए। एक इतना उदारवादी दर्शन, जो जातिप्रथा को नहीं मानता, पुनर्जन्म को नहीं मानता, जिसमें रेशनलिटी थी। वह हमसे छूट गया। आपने प्राकृत को छोड़ दिया तो महावीर बाहर होगये। सोरसैनी, अपभ्रंश, जो स्थानीय जनपदीय भाषाएं हैं, उनके शब्दों को छोड़ दिया। एक फ्लाईओवर बनाया, सीधे संस्कृत से और गढ़ ली गई हिंदी। उस हिंदी को सब लोगों पर थोप दिया गया। अब आप बताइयें, यह हिंदी कैसे बचेगी? हिंदी नहीं बचेगी, वही हिंदी बचेगी जो जीवित है, जो जनता द्वारा, मनुष्यों द्वारा, जीवित लोगों द्वारा व्यवहृत है। व्यवहार में लाई जा रही है। उस हिंदी पर कोई संकट नहीं है। मैं नहीं मानता कि हिंदी पर कोई संकट है। दुनिया में बहुत सी छोटी-छोटी भाषाएं बची हुई है और बड़ी-बड़ी भाषाएं लुप्त हो चुकी है। गणेश दैवी भी जो अपने भाषा सर्वेक्षण में कहते हैं। अफ्रीका की भी छोटी भाषाएं बची हुई है। और जो प्रमुख भाषाएं हैं, वे गायब हो चुकी है। यह एक दूसरे स्तर पर चलने वाली परिघटना है। बाजार ही नहीं, इसमें और भी ढेर सारी चीजें सम्मिलित है। जैसे एक बहुत बड़ा उदाहरण है आइजक बेसाविस सिंगर का। उसने एक ऐसी भाषा में अपना साहित्य लिखा जो डेड, मृत भाषा थी। उसे कोई नहीं बोलता था। लोगों ने जब उनसे पूछा कि आप ऐसी भाषा में क्यों लिख रहे हैं जो मुर्दों की भाषा है तो उसने कहा कि इसलिए ताकि उसे सिर्फ प्रेत ही पढ़ें। तो यह जरूरी नहीं कि साहित्य बहुत प्रभावशाली भाषा में ही लिखा जाए। आप तो रूस के बहुत सारे लेखकों को जानते हैं। रसूल हमजातोव। किरगीज भाषा में उन्होंने लिखा। उसे बोलने वाले बमुश्किल तीन-चार लाख लोग थे। लेकिन वे एक महान लेखक बन गये, विश्व के श्रेष्ठतम साहित्य में उनका स्थान है। तो भाषा कोई मैटर नहीं करती है। बाजार उसका इस्तेमाल कर रहा है या नहीं, यह भी मैटर नहीं करता। साहित्य या किसी भी सृजनात्मक कर्म का इससे कोई संबंध नहीं होता। मार्क्स ने भी कहा था कि जो highest forms of art है उसमें संगीत आता है। सर्वोत्कृष्ट कला-रूप। जिसका भौतिक विज्ञान में जन्म हुआ उसका सर्वोच्च रूप मैथ्स, गणित है, जहां सब कुछ एब्सर्ड हो जाता है। संगीत में भाषा नहीं, स्वर होते हैं।
पहले जैसे हम पैंट को पतलून कर लेते थे, प्लेटो को अफलातून या सोक्रेटीज को सुकरात बना लेते थे, अपने ढांचे में, अपनी मिट्टी में उनको गढ़ने, बनाने, उन्हें नया कलेवर देने की जो कोशिश रहती थी, अब तो वैसी कोई इच्छा शक्ति भी नहीं बची है। मोबाइल रिचार्ज अब मोबाइल रिचार्ज ही रहेगा। दिल मांगे मोर। यह जो परिवर्तन हो रहे हैं, होते चले जा रहे हैं, मोदी किस हिंदी की बात कह रहे हैं। बाजार में जो हिंदी बची रहेगी, वह कैसी हिंदी होगी? क्या वह राजभाषा वाली हिंदी होगी? या ऐसी बाजार वाली?
सरला माहेश्वरी: रवीन्द्रनाथ का ही उदाहरण लें। एक प्रांतीय, बांग्ला भाषा के इस कवि ने किस प्रकार सारी दुनिया के, विश्व कवि बन गये।
देखिये, विश्व हिंदी सम्मेलन में उन्होंने किनको आमंत्रित किया। अमिताभ बच्चन को। मैंने एक छोटा सा बयान दिया। अमिताभ बच्चन तो उत्तर-छायावादी कवि हरिवंश राय बच्चन के पुत्र हैं।
उनको तो हिंदी साहित्य की काफी जानकारियां होगी। नरेंद्र शर्मा, अंचल भी उसी काल के थे। हमारे बहुत सारे गीतकार। उसी काल में प्रगतिवाद भी शुरू होता हैं। त्रिलोचन और अमरकांतजी भी इलाहाबाद के ही थे। उनको तो इन सबके बारे में काफी जानकारी होगी। विश्व हिंदी सम्मेलन में सिर्फ बाजार की बात हुई। चाय वाली बात पर मोदी ने काफी तालियां पिटवाई। लेकिन साथ ही यह भी कहा कि मेरी मातृभाषा गुजराती है। हिंदी भी एक नहीं है। कई हिंदिया है। राष्ट्रभाषा की बात करते हैंं। खुद हिंदुस्तान अभी तक राष्ट्र नहीं बना तो राष्ट्रभाषा क्या बनेगी। और अगर हम मान लेते हैं कि राष्ट्रभाषा बनेगी तो राष्ट्रभाषा को तो दूसरी भारतीय भाषाओं की ज्यादा परवाह करनी चाहिए। कन्नड़ का लेखक मार दिया जाता है, तमिल के लेखक मुरुगन से उसकी कलम छीन ली जाती है। बंगालियों पर हमले हो रहे हैं। और हिंदी वाले विश्व सम्मेलन में जाकर बाबाओं आदि के जरिये धर्म-कांडों में लगे हुए हैं! बाजार के सबसे बुरे लोग, बाबा, साधू – ये सब ही इकट्ठे हो रहे हैं। हिंदी को प्रचारित करने में बॉलिवुड वालों का बड़ा योगदान है। लेकिन बॉलिवुड के भी लेखकों को भोपाल में नहीं बुलाया गया। अमिताभ बच्चन को बुला रहे हैं जिनको इन सब बातों की जरा भी चिंता नहीं है। न मोदी को है कि दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ अभी क्या हो रहा है।
अभी तो खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के मामलों तक में डिक्टेट किया जा रहा है। चार दिन तक कोई मांसाहार नहीं करेगा। रामदेव ने भी कह दिया है।
ये सब साफ तौर पर फासीवाद के लक्षण है। और इसके खिलाफ आवाज उठाने के लिए जरूरत सिर्फ इस बात की है कि आप लोकतांत्रिक हो। फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में लोर्का एक प्रतीक बन गये थे। वे कोई कम्युनिस्ट या वामपंथी नहीं थे। लोकतांत्रिक थे। साहित्य अकादमी के दिये पुरस्कार को आज लौटा कर मैंने इसी भयानक परिस्थिति के खिलाफ अपनी प्रतिवाद की छोटी सी आवाज उठाई है। इससे ज्यादा और कुछ नहीं समझा जाना चाहिए।
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Arun Maheshwari
Hindi Marxist critic and political commentator and columnist. Author of books : Sahitya mein Yathartha : Siddhanta aur Vyavahaar ; Pablo Neruda : Ek Kaidi ki Khuli Duniya ; RSS aur uski Vichardhaara ; Paschim Bangal mein Maun Kranti ; Nai Aarthik Niti Kitni Nayee ; Ek aur Brahmaand ; Sirhane Gramsci
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